दोस्तों अक्सर हम जगजीत सिंह को उर्दू ग़ज़लों से जोड़कर देखते हैं. पर कभी कभार जब भी उन्होंने शुद्ध हिंदी के शब्दों से सजे गीतों को अपनी आवाज़ दी है ऐसा लगा जैसे माहौल में एक अलग ही महक फ़ैल गयी है. उनके स्वरों का जादू जब हिंदी गीतों में ढलकर परवान चढा तो सुनने वालों के मुँह से स्वतः निकला - वाह...सुनिए पंडित विनोद शर्मा के बोलों में जगजीत को
प्राण तुम क्यों मौन हो...
Thursday, October 20, 2011
Tuesday, October 11, 2011
गज़ल की सुनहरी आवाज़ - जगजीत सिंह पार्ट ०१
होंठों से छू लो तुम....
अपने होंठों पे सजाकर सैकड़ों हजारों ग़ज़लों को अमर करने वाली ये आवाज़ १० अक्टूबर २०११ को हमेशा हमेशा के लिए शांत हो गयी. एक समय था जब जगजीत ने अपनी पत्नी चित्रा के साथ मिलकर गज़ल को प्रबुद्ध वर्ग के सीमित दायरों से निकाल कर आम माध्यम वर्गीय परिवारों के बीच पहुंचा दिया था. ये वो दौर था जब फिल्म संगीत शोर के मौहोल में अपनी मधुरता खो रहा था. ऐसे में संगीत प्रेमियों के दिलों के सूखे को आनंद की फुहारों से भिगोया जगजीत चित्रा के स्वरों ने. अपने एकलौते बेटे की आकस्मिक मृत्यु के बाद चित्रा सिंह ने गान छोड़ दिया, पर जगजीत तमाम दर्द और पीड़ा को अपने दिल में दबा गए और अपनी आवाज़ में ढाल कर गाते गए, गम का खज़ाना जो उनका भी था और सुनने वालों का भी उसे वो अपने सुरों से सजाते रहे....
जग ने छीना मुझसे....
उन्होंने गज़लों में आधुनिक वाद्यों का भरपूर इस्तेमाल किया, गज़ल गायन को एक नया कलेवर दिया. उनकी गायकी सरल होती थी मगर मर्म को छूती थी. ग़ज़लों को चुनने और उन्हें स्वरबद्ध करने में भी वो खासी मेहनत करते थे. मय, मीना और हुस्न ओ इश्क से हट कर उन्होंने ऐसे विषय चुने जिनसे आम आदमी स्वयं को जोड़ सके. उदाहरण के लिए ये क्लास्सिक गज़ल जिसमें शायर सुदर्शन फाकिर ने दुनिया की तमाम दौलतों शोहरतों को उस बचपन के समक्ष छोटा कर दिया जिसमें थी मासूमियत, दादी नानी की कहानियां, गुड्डे गुड़ियों के खेल और ढेर सारा भरा भरा खालीपन. कौन होगा जिसे इस ग़ज़ल ने नहीं छुआ होगा, रेडियो प्लेबैक इंडिया में हम जारी रखेंगें श्रध्न्जली का सफर गज़ल के बादशाह जगजीत सिंह के नाम....फिलहाल सुनें इसी गज़ल को
ये दौलत भी ले लो...
अपने होंठों पे सजाकर सैकड़ों हजारों ग़ज़लों को अमर करने वाली ये आवाज़ १० अक्टूबर २०११ को हमेशा हमेशा के लिए शांत हो गयी. एक समय था जब जगजीत ने अपनी पत्नी चित्रा के साथ मिलकर गज़ल को प्रबुद्ध वर्ग के सीमित दायरों से निकाल कर आम माध्यम वर्गीय परिवारों के बीच पहुंचा दिया था. ये वो दौर था जब फिल्म संगीत शोर के मौहोल में अपनी मधुरता खो रहा था. ऐसे में संगीत प्रेमियों के दिलों के सूखे को आनंद की फुहारों से भिगोया जगजीत चित्रा के स्वरों ने. अपने एकलौते बेटे की आकस्मिक मृत्यु के बाद चित्रा सिंह ने गान छोड़ दिया, पर जगजीत तमाम दर्द और पीड़ा को अपने दिल में दबा गए और अपनी आवाज़ में ढाल कर गाते गए, गम का खज़ाना जो उनका भी था और सुनने वालों का भी उसे वो अपने सुरों से सजाते रहे....
जग ने छीना मुझसे....
उन्होंने गज़लों में आधुनिक वाद्यों का भरपूर इस्तेमाल किया, गज़ल गायन को एक नया कलेवर दिया. उनकी गायकी सरल होती थी मगर मर्म को छूती थी. ग़ज़लों को चुनने और उन्हें स्वरबद्ध करने में भी वो खासी मेहनत करते थे. मय, मीना और हुस्न ओ इश्क से हट कर उन्होंने ऐसे विषय चुने जिनसे आम आदमी स्वयं को जोड़ सके. उदाहरण के लिए ये क्लास्सिक गज़ल जिसमें शायर सुदर्शन फाकिर ने दुनिया की तमाम दौलतों शोहरतों को उस बचपन के समक्ष छोटा कर दिया जिसमें थी मासूमियत, दादी नानी की कहानियां, गुड्डे गुड़ियों के खेल और ढेर सारा भरा भरा खालीपन. कौन होगा जिसे इस ग़ज़ल ने नहीं छुआ होगा, रेडियो प्लेबैक इंडिया में हम जारी रखेंगें श्रध्न्जली का सफर गज़ल के बादशाह जगजीत सिंह के नाम....फिलहाल सुनें इसी गज़ल को
ये दौलत भी ले लो...
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